हवन कुण्ड के पश्चिम, दक्षिण और उत्तर में तीन लकडियाँ रखी जाती हैं जिन्हें परिधी कहते हैं | देवों ने जब अग्नि को अपने होता के रूप में वरण किया तब अग्नि ने कहा - " मुझे तुम्हारा होता बनने में और तुम्हारे लिये हवि ले जाने में बिलकुल उत्साह नहीं हैं | मुझसे पहले तुमने तीन अग्नियों का वरण किया था और वे सब लुप्त हो गये ( भुवपति,भुवनपति,भूतपति - ये इन अग्नियों के नाम हैं ) | उन्हें वापस लाओ और मैं तुम्हारा होता बनूँगा और हवी ले जाऊँगा | "
उस समय देवों ने इन तीन अग्नियों के रूप में तीन परिधियों की कल्पना की | तब अग्नि ने कहा - " मुझसे पहले ये तीनों आहुति के समय वज्र रूपी वषट्कार से मारे गये थे, मुझे डर है कि में भी वषट्कार से मारा जाऊँगा | "
तब देवों ने उन तीन परिधियों की स्थापना अग्नि के पश्चिम, दक्षिण और उत्तर में कवच रूप में की जिससे अग्नि वषट्कार रूपी वज्र से बच सकें |
उन परिधियों ( अग्नियों ) ने कहा - "अब हम इस तरह यज्ञ में शामिल हो गये हैं तो हमें भी हवि का भाग चाहिये |"
देवों ने कहा - " परिधियों के बाहर जो हवी गिरता है वह तुम्हारा भाग होगा,तुम्हारे ऊपर जो हवी दिया जायेगा ( परिध्यञ्जनम् ) वह तुम्हारा भाग होगा, अग्नि में तुम्हारा नाम लेकर दिये जानेवाला आहुति भी तुम्हारा होगा |"
इसलिये हवन कुण्ड के बाहर हवी गिरने पर ( स्कन्न ) दोष नहीं मानते हैं क्यों कि वह इन अग्नियों का भाग बनता है |
समिधाओं को परिधि के रूप में रखना उचित नहीं है क्यो कि समिधा अग्नि में रखने के लिये है |
नैरृत्य और वायव्य में मध्यम परिधी दूसरे परिधियों को छूने जैसा रखना चाहिये | अंतर छोडने से राक्षस उससे घुसकर यज्ञ में विघ्न कर सकते हैं |
परिधियां पलाश,विकंकत, कार्ष,बेल,खदिर या उदुम्बर की हों |